‘बेगम जान’ 2015 में आई बांग्ला फिल्म ‘राजकाहिनी’ का हिंदी संस्करण है. वह फिल्म मंटो की एक कहानी से शुरू होती है और मंटो की कहानियों की ही तरह दिल दहलाकर खत्म हो जाती है. विभाजन के इर्द-गिर्द बुनी गई यह दिलचस्प काल्पनिक कहानी अपने उम्दा निर्देशन और बेगम जान के रोल में अति का आलातरीन अभिनय करने वालीं रितुपर्णा सेनगुप्ता की वजह से दर्शनीय थी, और उसकी ध्यान खींचने जाने वाली कुछ कमियों में सबसे बड़ी कमी उसकी लंबाई थी
‘बेगम जान’ की कहानी मैडम रुक्मणि बाई (इला अरुण) और उनकी लड़कियों की है. उनके प्यार, लाइफ, रिश्ते, डिसअप्वॉइनमेंट, ताकत और बॉन्डिंग ने फिल्म में यादगार है. ‘बेगम जान’ में बंगाल ने सामाजिक मुद्दों और कड़वी सच्चाई को बताया गया है. बंटवारे के बैकड्रॉप पर बनीं इस फिल्म में नया कंटेंट यह रहा कि उनका वेश्यालय रेडक्लिफ लाइन पर आता है. ऐसे में वेश्यालय का एक तिहाई हिस्सा भारत में और बाकी का पाकिस्तान में होता है. जब दोनों देशों की सरकार इसे यहां ये हटाने की कोशिश करती है तो बेगम (विद्या) और उनकी लड़कियां इस बात को मानने से साफ इंकार कर देती हैं. ऐसे में कोठे को लेकर बहस होती हैं कि इस प्लेस का बंटवारा नहीं होगा. वो कहती हैं- “यहां ना तो कोई धर्म है और ना ही कोई क्लास. यहां सिर्फ धंधा चलता है. जब यहां लाइट बंद होती है हर मर्द बराबर होता है.”
‘बेगम जान’ की कहानी ‘राजकाहिनी’ से अच्छी हैं क्योंकि इसमें विद्या बालन है. ‘बेगम जान’ एक आकर्षक महिला है. कहीं थोड़ी क्रूर लेकिन लविंग और अंदर से कमजोर. बस एक बात समझ नहीं आती कि ये महिलाएं उस जगह पर क्यों रुक जाती हैं ये तो कहीं भी अपना वेश्यालय खोल सकती हैं. क्योंकि कभी भी सेक्स के बाजार में तो कोई कमी नहीं होने वाली. 134 मिनिट की इस फिल्म को बेहतरीन तरीके से एग्जिक्यूट किया गया है. कहानी को वाकई जबरदस्त तरीके से लिखा गया है. हालांकि फिल्म के सपोर्टिंग कैरेक्टर को लेकर ज्यादा स्क्रिप्ट में नहीं लिखी है. रजत कपूर और आशीष विद्यार्थी पूरी फिल्म में अजीब फ्रेम में रहते हैं. सुजीत ने दोनों को टाइट क्लोजअप और उनके फेस को ही फिल्म में लिया गया है. शायद इससे कहीं बंटवारे को बताने की कोशिश की गई है हालांकि ये आइडिया काम नहीं आया है. वेश्यालय की बाकी महिलाओं को आसानी से भुलाया जा सकता है. सिर्फ गौहर खान का कैरेक्टर याद रहता है साथ उनके प्रेमी पितोबाश त्रिपाठी भी बेहतरीन हैं. चंकी पांडे ने अपने न्यू लुक से एक छाप छोड़ने की कोशिश की है. लेकिन वो उस हद तक सफल नहीं हुए.
फिल्म से दो आइकोनिक राइटर शहादत हसन मंटो और इस्मत चुगताई को डेडिकेट है. वहीं अंत में साहिर के सॉन्ग- “वो सुबह कभी तो आएगी…”. फिल्म एक फिक्शन है जिसे और बेहतर किया जा सकता था. ‘बेगम जान’ की कहानी को ज्यादा ही पका दिया गया है. जो कि सिर्फ रुलाती है.