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गंदा है पर धंधा है

  • पानी की दलाली पी रहा राज्य स्वास्थ्य संस्थान
    स्वास्थ्य संस्थान का ‘टॉप टू बॉटम’ इस धंधे का सिपाही
    स्वास्थ्य संस्थान में पानी की दलाली के धंधे से संबंधित पुख्ता साक्ष्य बिजनेस लिंक के पास हैं मौजूद
    अपर निदेशक डॉ. सुषमा सिंह ने अपना पक्ष देने से किया किनारा, समय देकर नहीं की मुलाकात, न उठाया सीयूजी

शैलेन्द्र यादव

लखनऊ। सरकार और स्वास्थ्य महकमा सभी को बेहतर स्वास्थ्य सुविधायें मुहैया कराने में व्यस्त है। पर, राज्य स्वास्थ्य संस्थान, उत्तर प्रदेश प्रबंध तंत्र पानी की दलाली पीने में मस्त है। पहले जांच असंतोषप्रद घोषित करना, फिर मनचाही वसूली से उसी रिपोर्ट पर संतोषप्रद की मुहर लगा देना राज्य स्वास्थ्य संस्थान की कार्यशैली में रच-बस चुका है। सरकार-ए-सरजर्मी लखनऊ के अलीगंज क्षेत्र स्थित स्वास्थ्य विभाग के इस संस्थान में जल परीक्षण जांंच की नोडल अधिकारी स्वयं संस्थान की अपर निदेशक डॉ. सुषमा सिंह हैं। दलाली के इस सुनियोजित धंधे का उत्पत्ति वर्ष 2011 बताया जा रहा है। तब से संचालित हो रहे इस कारनामें के खिलाफ विभागीय कर्मचारियों ने शासन-प्रशासन के सर्वोच्च स्तर पर विराजमान शासकीय शक्तियों को पत्र लिखे। बावजूद इसके इस ओर जिम्मेदारों का ध्यान न जाना पीड़ादायक है।

जानकारों की मानें तो इन वर्षों में अपर निदेशक की कुर्सी पर आसीन होने वाले लगभग सभी चिकित्सकों ने पेयजल की खराब गुणवत्ता से होने वाले दुष्परिणामों की चिंता न करके इस गोरखधंधे से अपनी जेबे भरने में अधिक दिलचस्पी ली है। बीते दिनों सीतापुर जनपद के मदारीपुर सिधौंली स्थित ब्राइट फ्यूचर पब्लिक स्कूल के जल का नमूना पहले 23 अप्रैल 2018 को परीक्षण में प्रदूषित असंतोषप्रद बताया गया। जब संस्थान प्रबंध तंत्र दलाली का चढ़ावा प्राप्त करने में सफल हुआ, तो इस रिपोर्ट पर 15 मई 2018 को संतोषप्रद की मुहर लगा दी गई। इतना ही नहीं जनपद लखीमपुर खीरी स्थित एक आइसक्रीम फैक्ट्री के जल परीक्षण के नमूने पर कैसे संस्थान प्रबंध तंत्र द्वारा संतोषप्रद की मुहर लगाई गई, दलाली की यह दास्तान पीडि़त ने स्वयं बिजनेस लिंक को बयां की।

गौरतलब है कि प्रदेश के समस्त जनपदों के स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, चिकित्सा विश्वविद्यालय, रेस्टोरेंट, प्रतिष्ठान, होटल, गेस्ट हाउस, आइसक्रीम फैक्ट्री और शराब फैक्ट्री आदि के जल परीक्षण का कार्य राज्य स्वास्थ्य संस्थान की जिम्मेदारी है। पर, यहां प्रदूषित असंतोषप्रद जल को संतोषप्रद में बदलने का खेल किसकी छत्रछाया में खेला जा रहा है, यह जांच का विषय है। फिलहाल, धन उगाही का यह धंधा खुलेआम चल रहा है। ऐसा भी नहीं है कि इसकी शिकायत नहीं हुई, शासन-प्रशासन के सर्वोच्च स्तर पर विभागीय लोगों ने इसकी शिकायतें कीं, पर हुआ कुछ नहीं। पेयजल में आर्सेनिक या विषैले तत्वों की मात्रा कैंसर जैसे घातक रोग का कारक बन सकती है। यह एक चिकित्सक से बेहतर कोई और नहीं समझ सकता। पर, जब विशेषज्ञ चिकित्सकों को ही जल परीक्षण की दलाली राश आने लगे, तो यह स्थिति आमजन के लिये चिंतनीय, सरकार और स्वास्थ्य महकमें के लिये शर्मनाक है।

dr. padmakarआपने प्रकरण संज्ञान में लाया है। इसकी जांच करायी जायेगी। जो भी दोषी होंगे उन पर सख्त कार्रवाई की जायेगी।
डॉ. पद्माकर सिंह, महानिदेशक, चिकित्सा स्वास्थ्य, उत्तर प्रदेश

यहां नहीं लागू हो रहे चिकित्सा मंत्री के निर्देश
गौरतलब है कि विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी से प्रदेश की चिकित्सा सेवायें प्रभावित हैं। इस संबंध में उच्च न्यायालय टिप्पणी कर चुका है। सरकार ने प्रशासनिक पदों पर तैनात चिकित्सकों को चिकित्सकीय कार्य में लगाने का ऐलान किया। चिकित्सा स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह इस प्रकरण पर बेहद संजीदा हैं। बावजूद इसके राज्य स्वास्थ्य संस्थान में उच्च न्यायालय, सरकार और चिकित्सा मंत्री की यह मंशा परवान नहीं चढ़ पा रही है। यहां लगभग एक दर्जन विशेष योग्यता वाले आर्थोपेडिक्स, सर्जन, बालरोग विशेषज्ञ, गायनोकोलाजिस्ट, आई सर्जन आदि तैनात हैं जिनसे एक नया अस्पताल सुचारू रूप से संचालित हो सकता है। पर, यह चिकित्सकीय धर्म से दूर हैं।

जिसने की इस गंदे धंधे की शिकायत, वह हुआ प्रताडि़त
राज्य स्वास्थ्य संस्थान में जल परीक्षण में की जा रही धांधली की शिकायत करने वाले कर्मचारियों को प्रबंध तंत्र समय-समय पर प्रताडि़त करता रहा है। जानकारों की मानें तो बीते वर्षों में एक वरिष्ठ लैब टैक्नीशियन ने इस गंदे धंधे की शिकायत की थी। वर्ष 2011 में जब वह सेवानिवृत्त हुआ, तो तत्कालीन अपर निदेशक ने रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले उसके सभी लाभों पर रोक लगा दी। इतना ही नहीं पेंशन प्रपत्रों को पेंशन निदेशालय भेजने में भी लम्बे समय तक आनाकानी की गई। पीडि़त ने तत्कालीन प्रमुख सचिव चिकित्सा स्वास्थ्य से न्याय की गुहार भी लगाई थी।

आरामतलबी की ऐशगाह बना संस्थान
राज्य स्वास्थ्य संस्थान विशेषज्ञ चिकित्सकों की आरामतलबी की ऐशगाह बन चुका है। मर्जी हुई तो कार्यालय पहुंचे, नहीं हुई तो नहीं आये। यदि आये भी, तो कार्य क्या किया यह जांच का विषय है।

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