प्रणय विक्रम सिंह
अपील: आइये, घरों को ही बनाये मस्जिद
…तभी तो बरसती हैं नेमतें और खिलखिलाती हैं बरकतें
लखनऊ। क्या हुआ जो कोरोना वायरस जैसे क्रूर संक्रमण के चलते मुकद्दस माह-ए-रमज़ान में मस्जिदों में नमाज़ नहीं पढ़ी जा पा रही है। आइये, अपने घरों को ही मस्जिद बनाया जाए।
कुदरत की इबादत और इंसानियत की फिक्र से लबरेज ‘रोज़ा’ हमारे घर को ‘वह’ पाकीज़गी अता करेगा, जिसकी तलाश हम सबको बरसों से थी। हम नमाज भी अदा करेंगे और तरावीह की दुआ भी पढ़ेंगे। लेकिन किसी भी हालत में घर से बाहर नहीं निकलेंगे।
जज्बातों के दरिया में मोहब्बत की कश्ती से दिलों की मंजिल तक पहुंचने का सफ़र बेशक करेंगे लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग ज़रूर रखेंगे। क्या हुआ, जो हर बार की तरह तमाम लजीज पकवान, हमारे दस्तरख्वान पर नहीं है, लेकिन परवरदिगार-ए-आलम पर ऐतबार तो है। जो अल्लाह ने दिया है उसी में बसर करेंगे।
अरे, रोज़े का तो मतलब ही सब्र है, शुक्र है, फिक्र है। और एक दिन, एक माह, एक साल नहीं बल्कि यह तो पूरी ज़िन्दगी की तैयारी है। हर हाल में खुश रहना और दूसरों की ख़ुशी का जरिया बनना…यही तो है रोज़े की हिदायत। तभी तो नेमतें बरसती हैं, बरकत खिलखिलाती है।
रमज़ान के पवित्र माह में अर्जित सब्र, शुक्र, फिक्र, नेमत और रहमत जैसे बेशुमार अहसासों की पुरखुलूस दौलत से मालामाल हमारे किरदारों के मुक़ाबिल बदनीयती और तंग ख्यालों की तीरगी भला कितने देर ठहरेगी!
यकीन मानिए, दुआओं के सदके कुदरत की बेशुमार रहमतों और बख़्शीशों से भरा हुआ आपका दामन, कोरोना के लिए कयामत बन जायेगा।
*रमज़ान मुबारक, हज़ार बार मुबारक*