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कैद हुई आबोहवा

  • लगातार बढ़ते वाहन और डीजल पेट्रोल की खपत बढ़ा रही प्रदूषणdelhipollution-kECD--621x414@LiveMint
  • कई साल से बन रहीं योजनाएं लेकिन नहीं होता अमल
  • शहर में बढ़ती आवासीय जरुरतों के चलते काटे जा रहे पेड़
  • पर्यावरण असंतुलन के कारण सामने आएंगे गंभीर परिणाम
  • वाहनों की बढ़ती अनियंत्रित संख्या और रेंगता ट्रैफिक बढ़ा रहा प्रदूषण
  • अतिक्रमण रहित सड़कें और वाहनों की संख्या हो कम तो सुधर सकते हैं हालात

बिजनेस लिंक ब्यूरो
लखनऊ। कम होती हरियाली, बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती वाहनों की संख्या और कंक्रीट के जंगल के कारण राजधानी में प्रदूषण का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। आये दिन प्रदूषण का स्तर खतरनाक लेवल तक पहुंच जाता है। ऐसी हवा में सांस लेना जहरीला ही नहीं जानलेवा भी है। कुछ समय पहले की बात है जब डब्ल्यूएचओ ने राजधानी लखनऊ को विश्व में सातवां सबसे अधिक प्रदूषित शहर माना था तब बहुत हाय तौबा मची थी, तमाम योजनाएं तैयार करना स्वाभाविक था, लेकिन समय बीतते ही सब ढांक के तीन पात। शहर की बढ़ती आबादी के ग्राफ का सीधा असर हरियाली पर दिखाई दे रहा है। आलम यह है कि जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार के बीच हरियाली दम तोड़ती दिखाई पड़ रही है। जिसकी वजह से पर्यावरण असंतुलन सामने आ रहा है। हम सभी को इसके भयावह परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा, क्योंकि हम किसी भी हाल में सुधरने का नाम नहीं ले रहे है, जबकि परिणाम सामने है। देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजादी मिले हुए सात दशक से अधिक बीत चुके हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को प्रदूषण से आजादी नहीं मिल सकी है और न ही जिम्मेदार इस विषय पर कुछ बेहतर करने की सोच रहे है। वायु से लेकर मिट्टी और पानी तक सभी प्रदूषित होते चले जा रहे हैं। आए दिन पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की रिपोर्ट आती है कि शहर की आबोहवा सांस लेने लायक नहीं बची है। कई इलाकों में प्रदूषण का लेवल तो काफी खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। लेकिन न तो कुछ सरकारें कर रही है और न ही कुछ हम आप कर रहे है। आईआईटीआर हर साल प्रदूषण लेवल को माप कर इससे बचाव के लिए सुझाव देता है, लेकिन सरकारें और जिम्मेदार अधिकारी नहीं चेत रहे। जिसका नतीजा है कि लखनऊ को प्रदूषण के नाम पर चर्चा हो रही है। साइंटिस्ट्स का कहना है कि प्रदूषित हवा में सांस लेने से हार्ट, सांस की बीमारियां जैसे सीओपीडी के मरीजों प्रेगनेंट महिलाएं, वृद्ध लोगों और बच्चों को सबसे अधिक नुकसान होता है।पीएम 10 और पीएम 2.5 का बढ़े हुए स्तर में सांस लेने से हार्ट की बीमारियों, सांस की समस्याएं जैसे अस्थमा, ब्रोंकाइटिस होने का खतरा है। नवजात शिशुओं के विकृति होने, प्रीमेच्योर डिलीवरी और मार्टेलिटी रेट बढऩे का खतरा है। मानकों के अनुसार हर एक पीएम10 की मात्रा 10 तक बढऩे पर मृत्यु दर भी एक प्रतिशत तक बढ़ती है।

10 साल में 10 लाख वाहन बढ़े
राजधानी में प्रदूषण के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार वाहनों की संख्या में अप्रत्याशित रूप से बढ़ोत्तरी हो रही है। 2007 में वाहनों की कुल संख्या 904831 थी। जो कि 2017 में बढ़कर 19,78,345 पहुंच गई। यानी 10 वर्षो में 10.73 लाख वाहनों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो गई। जबकि 2016 में यह संख्या 18,64,556 थी। इस प्रकार से पिछले एक साल में ही करीब ८-१० फीसद की दर से वाहनों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।

हजार लोगों पर एक पेड़
शहर में जिस तरह से विकास के नाम पर पेड़ों को काटा जा रहा है, उससे जहां पहले एक व्यक्ति पर एक पेड़ था, वहीं आज हजार लोगों पर एक पेड़ बचा है। एक पेड़ जो 25 से 30 साल आयु का है वह साल भर में 50 लोगों की आवश्यकता को पूरा करता है, लेकिन यह व्यवस्था शहरों में फैलने वाले प्रदूषण और बढ़ती गर्मी से बदल भी जाती हैं।

केवल 12 प्रतिशत हरियाली क्षेत्र
लखनऊ में इस समय अनुमानित आबादी करीब 46 लाख से ऊपर है। वहीं शहर का केवल 12 प्रतिशत एरिया ही हरियाली क्षेत्र है। इस हरियाली क्षेत्र में लगे पेड़ राजधानी की आबादी के लिए नाकाफी हैं। हाल यह है कि जो पेड़ कभी दस लोगों की आक्सीजन की जरूरत को पूरा कर सकते थे, आज उन पर हजारों लोगों की जिम्मेदारी है और जिन पर हरियाली क्षेत्र बढ़ाने की जिम्मेदारी है, उनका कुछ अता-पता ही नहीं है।

अधिक्तम 488 तक पहुंचा पॉल्यूशन
पिछले दिसंबर माह में लखनऊ में प्रदूषण का स्तर 488 तक पहुंच गया था, जिसके अनुसार लखनऊ देश का सबसे अधिक प्रदूषित शहर था। करीब 15 दिन से अधिक समय तक यह स्तर 400 के ऊपर बना रहा था। इसके बाद प्रदेश सरकार ने प्रदूषण नियंत्रण के लिए आदेश जारी किए। खुले में कूड़ा जलाने पर रोक लगाने सहित कई अन्य आदेश भी दिए। लेकिन यह आदेश सिर्फ कागजों तक ही सीमित रहे। जिसका नतीजा सबके सामने है। एक बार फिर दीपावली के बाद प्रदूषण ने अपना दायरा बढ़ाना शुरू कर दिया है।

बस रही बस्तियां, गायब हुई हरियाली
जनसंख्या वृद्धि के कारण शहर के बाहरी इलाकों में तेजी से बस्तियां बस रही हैं। जिसकी वजह से हरियाली का अंत हो रहा है। इतना ही नहीं, शहर के अंदर भी बड़े- बड़े आवासीय प्रोजेक्ट्स हरियाली को दफन कर रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि गुम होती हरियाली को रोकने के लिए जिम्मेदारों की ओर से कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

स्थिति हो रही खराब
गुजरते वक्त के साथ हरियाली के गिरते ग्राफ की स्थिति बेहद खराब होती जा रही है। बात करते है इस्माइलगंज की तो वहां एक दर्जन से अधिक नए मोहल्ले विकसित हुए हैं। जानकारों की मानें तो पहले यहां हरियाली हुआ करती थी, लेकिन जैसे ही आवासीय बस्तियां बसीं, हरियाली ने दम तोडऩा शुरू कर दिया।
यही हाल खरगापुर का भी है। हालांकि अभी कुछ ऐसे इलाके हैं, जहां पर हरियाली का वास है, लेकिन वहां भी ज्यादा समय की गारंटी नहीं है। अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले दिनों में यहां भी हरियाली इतिहास बन जाएगी।

पॉल्यूशन कम करने के सुझाव

  • प्रमुख सड़कों को चौड़ा किया जाए
  • चौराहों पर ट्रैफिक को स्मूथ करने के लिए बदलाव किए जाएं
  • ट्रैफिक सुगम बनाने के लिए सड़कों को अतिक्रमण मुक्त रखा जाए
  • पैदल यात्रियों के लिए फुटपाथ बनाए जाएं
  • निजी भवनों- जमीनों पर भी पार्किंग की व्यवस्था हो
  • पार्किंग रेट को बढ़ाया जाए और घंटे- घंटे के हिसाब से चार्ज लिया जाए ताकि लोग वाहनों का कम इस्तेमाल करें
  • पब्लिक ट्रांसपोर्ट में यात्रा पर सब्सिडी दी जाए ताकि लोग पर्सनल व्हैकिल कम प्रयोग करें
  • शहर के आस-पास के क्षेत्र में रिहायशी काम्पलेक्स बनाए जाएं
  • सड़कों पर डंप हो रहे कूड़े को हटाया जाए
  • सभी खाली संभावित जगहों पर पौधरोपण किया जाए
  • पूरे शहर में सीएनजी स्टेशन की संख्या को बढ़ाया जाए
  • बैट्री आपरेटेड व्हैकिल्स की संख्या को बढ़ाया जाए
  • जेनरेटर की जगह सोलर एनर्जी को बढ़ावा दिया जाए

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