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गुमशुदा बच्चों के हब बनें प्रयागराज-वाराणसी

गुमशुदा बच्चों की बरामदगी में प्रयागराज सेक्शन पहले पायदान पर, वाराणसी दूसरे पर

बेहतर मैकेनिज्म के अभाव में परिजनों से नहीं मिल पाते 80 फीसदी गुमशुदा बच्चे

20 प्रतिशत गुमशुदा बच्चे ही परिजनों से मिल पाते हैं दोबारा

जीआरपी के गुमशुदा बच्चों railway copyके परिजनों की खोजबीन के बेहतर तरीके की तलाश अब तक अधूरी

गुमशुदा 80 फीसदी बच्चों की ठौर बन रहे चाइल्ड लाइन व संरक्षण गृह
लखनऊ। सूबे में बच्चों की गुमशुदगी की समस्या बेहद गंभीर होने के बावजूद जिम्मेदार ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं। सामाजिक संगठनों, सिनेमा व धारावाहिकों में समय-समय पर इस समस्या पर चिंता भी जाहिर की जाती है। लेकिन बच्चों के लापता होने की घटनाओं पर रोक के लिए शासन स्तर पर भी कोई स्पष्ट नीति नहीं बन पायी है। वहीं यूपी पुलिस भी इसे रोकने या बरामद होने वाले बच्चों के परिजनों को तलाशने का कोई मैकेनिज्म नहीं बना सकी है। राजकीय रेलवे पुलिस द्वारा रोजाना बरामद होने वाले बच्चों के आंकड़ों पर गौर करें तो समस्या की गंभीरता का अंदाजा खुद लगाया जा सकता है। वहीं इसका दुखद पहलू यह है कि बरामद होने वाले बच्चों में से महज 20 प्रतिशत को ही उनके परिजन दोबारा मिल पाते हैं। जबकि अधिकांश बच्चों की मंजिल चाइल्ड लाइन या संरक्षण गृहों पर जाकर समाप्त हो जाती है। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में सबसे ज्यादा गुमशुदा बच्चे रेलवे कैम्पस या फिर ट्रेन से बरामद होते हैं। इनमें से अधिकांश बच्चों की उम्र एक साल से 10 साल के बीच ही होती है। इन बच्चों को बरामद करने वाली जीआरपी के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि प्रदेश में औसतन रोजाना छह बच्चे बरामद होते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि बच्चों की बरामदगी सबसे ज्यादा प्रदेश के दोनों महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों प्रयागराज या वाराणसी सेक्शंस से होती है। आंकड़ों की मानें तो बच्चों की बरामदगी में प्रयागराज पहले पायदान पर जबकि, वाराणसी दूसरे नंबर पर है। वहीं पश्चिमी यूपी इस समस्या से करीब-करीब अछूता ही है। यानी प्रदेश के पश्चिमी इलाके में इक्का-दुक्का या फिर न के बराबर ही गुमशुदा बच्चे बरामद होते हैं। वहीं बच्चों की बरामदगी के बाद उनके परिजनों की खोजबीन करने के लिए जीआरपी अपने वाट्सएप ग्रुपों में इन बच्चों की फोटोग्राफ पोस्ट करती है। अगर किसी बच्चे के परिजन जीआरपी से संपर्क करते हैं तो उसे बरामद हुए बच्चों की फोटोग्राफ दिखाई जाती है। पहचान होने पर उस बच्चे को परिजनों को सौंप दिया जाता है। हालांकि परिजनों को सौंपे जाने वाले बच्चों का आंकड़ा बेहद कम है। इसके अलावा परिजनों को तलाशने की दूसरी संभावना उस बच्चे से मिली जानकारी होती है, जिसे डेवलप कर जीआरपी परिजनों तक पहुंचती है। गुमशुदा बच्चों को परिजनों से मिलाने का कोई और मैकेनिज्म यूपी पुलिस अब तक नहीं बना सकी है। जिसका नतीजा है कि गुमशुदा ज्यादातर बच्चों की ठौर चाइल्ड लाइन या संरक्षण गृह बन रहे हैं।

परिजनों से नहीं मिल पाते 80 फीसदी बच्चे

गुमशुदा बच्चों को परिजनों से मिलाने के बेहतर मैकेनिज्म के अभाव में 80 फीसदी बच्चे परिजनों से नहीं मिल पाते हैं। आंकड़ों के तहत बरामद होने वाले कुल बच्चों में से महज 20 फीसदी बच्चे ही अपना नाम, परिजनों का नाम या पते का कोई सुराग दे पाते हैं, जिसके बाद संबंधित जीआरपी थाने की मदद से उनके परिजनों को तलाशा जाता है और उनके बच्चों को सुपुर्द कर दिया जाता है। लेकिन हकीकत यह भी है कि 80 फीसदी बच्चों के परिजनों का पता लगा पाने में जीआरपी नाकाम रहती है। जिसके चलते इन बच्चों को चाइल्ड लाइन या संरक्षण गृहों में भेज दिया जाता है। जहां से इन बच्चों को उनके घरों तक कब पहुंचाया जा सकेगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

ऐसे मिल सकती है मदद

आधार वेरीफिकेशन के जरिये
सिविल पुलिस और जीआरपी के संयुक्त नेटवर्क से
चाइल्ड लाइन व संरक्षण गृहों में रह रहे बच्चों की पुलिस वेबसाइट में फोटो अपलोड कर
बरामद बच्चों का डाटा बेस किसी एक सर्वसुलभ वेबसाइट पर अपलोड कर
सोशल मीडिया माध्यमों का इस्तेमाल करके

एक नजर

बरामदगी 89
बालक 71
बालिका 18
परिजनों को सौंपे 19
चाइल्ड लाइन/संरक्षण गृह 70
(आंकड़े 1 नवंबर से 15 नवंबर तक के हैं)

रेलवे कैम्पस या ट्रेनों में बरामद बच्चों को लेकर जीआरपी बेहद संवेदनशील है। बरामद बच्चों के परिजनों को तलाशने की भी हरसंभव कोशिश की जाती है। फिर भी अगर परिजन नहीं मिलते तो उन बच्चों को चाइल्ड लाइन या संरक्षण गृह भेजा जाता है।
संजय सिंघल, एडीजी रेलवे

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