पंकज जायसवाल
मुंबई। तमाम अन्य बदलावों और परेशानियों के साथ इस कोरोना काल ने पढ़ने, पढ़ाने, निजी या गैर सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों के तौर तरीकों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। इस पर बहस करने से पूर्व आइये इसके कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों को जान लेते हैं। इन निजी स्कूलों में पढने वाले बच्चों के अधिकांश माता-पिता मध्य वर्ग से आते हैं जो इस कोरोना काल से ज्यादे प्रभावित हैं क्योंकि इनकी एक बड़ी संख्या प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत नहीं आती है अतः यह सरकार के कोरोना काल में प्रत्यक्ष सहायता हेतु उसके जन चिंतन दर्शन में नहीं आते हैं। इसमें से जो माता-पिता नौकरी वाले हैं उनमें से कईयों को वेतन कटौती कर के मिल रहें हैं और कुछ को नौकरी से छंटनी किया जा रहा है और कोरोना काल में कम्पनियां जहां अपने आप को सिकोड़ रहीं हैं वहां अब इन निकाले गए लोगों को नौकरी की संभावनाएं नगण्य हैं। इसी प्रकार जो लोग स्वव्यवसाय में हैं उनके भी आय का मीटर बहुत डाउन है और वह अपने घर के किराये किश्त और दवाई के खर्चे से ही परेशान हैं ऐसे में उनके बच्चों को जो शिक्षण सेवा स्कूलों से मिलती थी उसकी मात्रा में भारी कमी होने के बावजूद भी यदि इन मुश्किल परिस्थितियों में फीस देना पड़ रहा है तो यह उनके लिए कष्टप्रद है।
इसी बीच और भी कुछ घटनाएँ हुईं, महाराष्ट्र सरकार ने फीस नहीं बढ़ाने का नोटिफिकेशन लाया था जिसपर बॉम्बे हाई कोर्ट ने स्टे लगा दिया, हालाँकि यह स्टे तकनीकी और नोटिफिकेशन लाये जाने के तरीकों के कारण है इसमें फीस लेने नहीं लेने या कम लेने के गुण दोष की मीमांसा नहीं है। इसी बीच दिल्ली के निजी स्कूलों के संगठन ने कहा कि चूँकि लॉकडाउन ख़त्म हो गया है अतः जो रोक फीस वसूलने में लगी थी वह लॉकडाउन ख़त्म होने से रोक स्वतः ही हट गई हालाँकि दिल्ली सरकार ने कहा कि यह अनलॉक का मतलब लॉकडाउन हटना नहीं है यह आंशिक रूप से छूट है, स्कूल ट्यूशन शुल्क के अलावा कुछ भी चार्ज नहीं कर सकते हैं। यह एक अलग विमर्श है कि कानूनी तौर पर जो छूटें लॉकडाउन के कारण मिली थीं तो क्या अब अनलॉक का नामकरण हुआ है तो क्या वह छूटें ख़त्म हो गईं।
इसके अलावा आठ राज्यों में विभिन्न स्कूलों में पढ़ रहें बच्चों के माता-पिता ने याचिका के माध्यम से माननीय सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें माननीय कोर्ट से कोरोनो वायरस के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान निजी स्कूलों में फीस के लिए नियामक तंत्र लाने की बात कही गई थी। याचिका में कहा गया था कि निजी गैर-सहायता प्राप्त / सहायता प्राप्त स्कूलों को यह निर्देश दिया जाय कि अप्रैल से शुरू होने वाली तीन महीने की अवधि या भौतिक रूप से कक्षाएं शुरू होने तक किसी भी नामांकित छात्रों से कोई शुल्क नहीं लिया जाए। इनके तर्क थे की ऑनलाइन कक्षाओं के लिए पूरी फीस नहीं ली जानी चाहिए और दावा किया गया था कि कुछ स्कूल ऑनलाइन कक्षाओं के लिए भी अतिरिक्त शुल्क ले रहे हैं। याचिका में यह भी सुनिश्चित करने की मांग की गई थी कि केंद्र और राज्य सरकारें निजी गैर-सहायता प्राप्त और सहायता प्राप्त स्कूलों को निर्देश दें कि वे छात्रों को कक्षा से न निकालें या इस दौरान कोई फीस नहीं दे पाता है तो उसके ऊपर कोई कोई दंड या अधिभार न लगाया जाय । इनके दलील में कहा गया था कि तालाबंदी के दौरान माता-पिता को लगातार वित्तीय और भावनात्मक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है और यह उनमें से हो सकता है की फीस न भर पाने की परिस्थिति में अपने बच्चों को स्कूल से निकलने के अल्वा कोई और विकल्प ना हो। याचिका में कहा गया था कि निजी स्कूल प्रशासन बिना किसी सेवाओं के रेंडर किए बिना शुल्क और अन्य शुल्क की मांग कर रहे हैं और अथॉरिटी ने भारत के विभिन्न हिस्सों में माता-पिता और छात्र के विरोध के बावजूद इसको लेकर कोई कार्रवाई नहीं की है।
याचिका में कहा गया कि शुल्क वसूली को सही ठहराने के लिए कुछ स्कूलों ने तालाबंदी की अवधि के दौरान ऑनलाइन कक्षाएं शुरू की हैं, ताकि वे यह तर्क दे सकें कि वे अपने छात्रों को शिक्षा प्रदान कर रहे हैं जबकि ऑनलाइन कक्षाएं शैक्षणिक संस्थानों को चलाने के दायरे में नहीं आती हैं। याचिका में कहा गया था कि भौतिक कक्षा और ऑनलाइन कक्षा में अंतर होता है और महामारी या देशव्यापी तालाबंदी में, स्कूल प्रशासन ऑनलाइन कक्षाएं के लिए भौतिक कक्षाओं की तरह समान शुल्क और खर्च नहीं वसूल सकता । ऑनलाइन कक्षाओं के कई दुष्प्रभाव और अवगुण हैं जो स्कूली शिक्षा की मूल अवधारणा से बिल्कुल अलग है। छात्रों को ऑनलाइन माध्यम से समझने में बहुत समस्या होती है। याचिका में कहा गया है कि महामारी के कारण और प्रवेश फॉर्म में आपदाकाल क्लॉज के अभाव में, अथॉरिटी को छूट के संबंध में एक निर्णय लेना चाहिये और लॉकडाउन की अवधि के लिए शुल्क में राहत प्रदान करनी चाहिए। याचिका में और भी बहुत से बिंदु कहे गए थे। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया और राहत के लिए उच्च न्यायालयों से संपर्क करने को कहा। शीर्ष अदालत ने कहा कि यह एक गहन तथ्य का विषयवस्तु है और चूँकि प्रत्येक राज्य में समस्याएं एवं तथ्य अलग-अलग हैं अतः बेहतर है यह याचिका राज्यों के हाई कोर्ट में दाखिल किये जाएँ। हालाँकि इस ख़ारिज में भी तकनीकी कारण है इसमें फीस लेने नहीं लेने या कम लेने के गुण दोष की मीमांसा नहीं है।
आइये इसके गुण दोष की मीमांसा करते हैं। भारत में स्कूल की अवधारणा में लाभ हानि का सिद्धांत नहीं है यह हमेशा से गैर लाभ की संस्था जैसे की ट्रस्ट एवं सोसाइटी को ही चलाना है अतः कोई स्कूल लाभ हानि की बात करता है तो वह नियमतः गलत कहता है और उसका ट्रस्ट एवं सोसाइटी का पंजीयन रद्द भी किया जाना चाहिए इस आधार पर। साथ में स्कूल की अवधारणा लाभार्थियों की सेवा आधारित है और यदि वह सेवा नहीं या कम दे रहें है तो शुल्क भी उसी अनुसार लेना चाहिए और शुल्क में यदि कोई कमी आती है तो हानि के नाम पर इसे लाभार्थियों से वसूल नहीं किया जाना चाहिए इसके लिए उन्हें किसी अन्य से डोनेशन लेना चाहिए और यदि इसमें वह समर्थ नहीं पाते तो इस संस्था को उसे हस्तांतरण कर दे जो इनके स्थापना के उद्देश्यों के तहत इस संस्था को चलाने में अपने आपको सक्षम पायें और रही बात सेवा के उचित मूल्य प्राप्त करने के तो भौतिक शिक्षा और ऑनलाइन शिक्षा सेवा में जमीन आसमान का अंतर है, बच्चो को वह शिक्षा बिलकुल नहीं मिलती जो भौतिक शिक्षा में मिलती, इस सेवा की मात्रा में भारी कमी है क्यों की उन्हें ना तो साउंड इफ़ेक्ट, ना विजुअल इफ़ेक्ट ना क्लास का वातावरण और ना व्यक्तित्व विकास का मौका मिलता है जिसका वादा निजी स्कूल किये होते हैं उसकी जगह ईमला की तर्ज पर पढाई होती है ऑनलाइन में. अतः जब सेवा का प्रारूप बदल गया तो फीस उस हिसाब से ही होनी चाहिए क्योंकि जैसी सेवा वैसा शुल्क। साथ में इस ऑनलाइन माध्यम में माता-पिता का खर्च, उनका समय और उनके संसाधनों का इस्तेमाल हो रहा है जबकि स्कूल के इन घंटों के लिए यह सब स्कूल की जिम्मेदारी थी। स्कूल ने भी अपने इन्फ्रा खर्च जैसे की बिजली, यूटिलिटी में भी भारी कमी पाई है वह वेतन और किराये में भी कमी पा रहें हैं कई जगह ऐसे में जो बचत उन्होंने की है कम से कम वह तो फीस घटा कर इस राहत को माता-पिता को दे सकते हैं।