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पेटेंट से पिछड़ता भारत

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पंकज जायसवाल

अभी व्हाट्सएप पर एक मेसेज चल रहा था, जिसमें अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश बिल गेट्स से कहते हैं कि अमेरिका में इतनी बेरोजगारी है आप विदेशियों को माइक्रोसॉफ्ट में क्यों नौकरी देते हैं तो उत्तर में बिल गेट्स जवाब देते हैं कि यदि मैं भारतीयों को माइक्रोसॉफ्ट में नौकरी में रख कर इंगेज नहीं रखूंगा तो वो दूसरा माइक्रोसॉफ्ट बना लेंगे। कहने को तो यह मजाक है, लेकिन यह बहुत बड़ी सच्चाई है, भोजपुरी में एक शब्द है बझा के रखना मतलब येन-केन प्रकारेण आपको चारा फेंक कर ऐसा फंसाना कि आप उसके आगे सोचो नहीं यह पुरातनकालीन जमींदारी सोच है और वर्तमान की पूंजीवादी सोच है।

भारत के ब्रेन का अमेरिका बड़ी संख्या में आयातक है और भारतीयों की सारी मेहनत और बुद्धि बस चंद रुपयों को खर्च कर अमेरिकी कंपनियां उसका पेटेंट हासिल कर विश्व बाजार पर कब्जा कर लेती हैं और अमेरिकी पूंजीपति बड़ी मात्रा में पैसिव आय रॉयल्टी कमाते हैं। भारत से सबसे अधिक भुगतान विदेशी तकनीक, फार्मूला या ब्रांड के रॉयल्टी के रूप में बाहर जाता है। कभी आपने सोचा है कि हम गर्व करते हैं कि गूगल का सीईओ सुंदर पिचाई हैं, लेकिन कभी गूगल जैसी कंपनी भारत में हम नहीं बना पाए। मोबाइल इंटरनेट और कंप्यूटर में लगभग सभी चीजों पर अमेरिका का कब्जा है, काम करने वाला श्रम और दिमाग भारतीय है हम उसके मालिक नहीं हैं। इस पिछड़ेपन का एक ही कारण है कि हम चाय की दुकान पर आइडिया बांटते है। पेटेंट की दुनिया में एक कहावत है कि पेटेंट आवेदन पहले फाइल करिए और अविष्कार बाद में करिए। भारत यहां पिछड़ जाता है।

अभी हाल का ही एक घटना बताता हूं एक सज्जन हैं और उन्होंने कुछ फूड सप्लीमेंट इजाद किया था, वह चाहते थे कि कोई इसका उत्पादन करे और उनको रॉयल्टी मिले और उनके न रहने पर उनके परिवार को रॉयल्टी मिले, लेकिन बिना पेटेंट फाइल किए हुए उन्होंने अपना पूरा मिश्रण फार्मूला लोगों को विश्वास दिलाने के लिए बता दिए, यह सबसे बड़ी गलती है और यहां भारतीय हमेशा चूक करते आ रहे हैं, हालांकि एक कारण यह भी है कि पेटेंट को लेकर अभी उतनी जागरूकता नहीं है।

आत्मनिर्भर भारत आर्थिक तौर पर बनने के लिए और चीन एवं अन्य देशों के मुकाबले ग्लोबल लीडर बनने के लिए हम तैयारी कर रहे हैं, लेकिन नए नए आइडिया उतारने में हम चीन और अमेरिका के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते। इसका कारण है कि हम अभी भी पुराने हथियारों और तरीकों से विश्व बाजार से प्रतिद्वंदिता कर रहे हैं। पेटेंट फाइलिंग के ताजा डाटा देखें तो हम अमेरिका तो दूर इनोवेशन में ही चीन से काफी पीछे हैं।

एक रिपोर्ट में छपे आंकड़ों क मुताबिक वल्र्ड इंटेलक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइजेशन के अनुसार, 2019 में पूरी दुनिया से पेटेंट के लिए कुल 2,65,800 आवेदन किए गए थे, जबकि भारत से केवल 2053 आवेदन हुए थे। इस प्रकार देखें तो दुनिया की आबादी में 16 फीसदी से दखल देने वाला भारत पेटेंट आवेदन में एक फीसदी से भी कम दखल रखता है और पेटेंट आवेदन में पूरी दुनिया में 14वीं रैंक रखता है। चीन मैन्युफैक्चरिंग और निर्माण में भारत और दुनिया से क्यों आगे निकल रहा है, क्योंकि उसने विकास की नब्ज पकड़ ली है वह है फॉर्मूले पर कब्जा। उसी रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में पेटेंट के लिए सबसे ज्यादा 58,900 आवेदन चीन से हुए थे और पेटेंट फाइलिंग में दूसरे स्थान पर 57,840 आवेदन के साथ अमेरिका अपना कब्जा जमाये हुए था हमेशा की तरह। पेटेंट फाइलिंग की इस खराब रैंकिंग और भागीदारी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम रिसर्च और फिर उसके विकास में कितने पीछे हैं।

पेटेंट फाइलिंग के मामले में भारतीय कंपनियों की स्थिति भी ज्यादा अच्छी नहीं है। पेटेंट फाइलिंग करने वाली कंपनियों की लिस्ट में टॉप-50 में भारत की कोई कंपनी नहीं है, वहीं चीन की 13 कंपनियां टॉप-50 में शामिल हैं और इसमें से चार कंपनियां तो टॉप-10 में शामिल हैं। पेटेंट फाइलिंग के मामले में 2019 में चीन ने अमेरिका को भी पछाड़ दिया है। 1978 में पेटेंट को-ऑपरेशन संधि शुरू होने के बाद यह पहला मौका है, जब चीन ने अमेरिका को पछाड़ा। 1999 में चीन ने पेटेंट के लिए 276 आवेदन किए थे, 2005 में 2503 आवेदन था जब अमेरिका का 46879 आवेदन था जो बीते वर्ष 2019 में बढ़कर 58990 आवेदन हो गया है। इस प्रकार 20 साल में चीन की पेटेंट फाइलिंग में 200 गुना की अभूतपूर्व उछाल आया है और यही कारण है कि इन बीस सालों में मैन्युफैक्चरिंग में भी उसके अभूतपूर्व उछाल आया है।

भारत के इस पिछड़ेपन का कारण यहां रिसर्च उस रिसर्च की मान्यता एवं तत्पश्चात उसके डेवलपमेंट में बहुत ही कम खर्च किया जाता है और यही कारण है कि भारत पेटेंट फाइलिंग के मामले में दुनिया से और चीन से काफी पीछे है। भारी उद्योग मंत्रालय की ओर से पिछले साल जुलाई में पेश किए गए एक अनुमान के मुताबिक, शोध एवं विकास पर भारत का खर्च पिछले कई सालों से लगातार जीडीपी के 0.6 से 0.7 फीसदी के बराबर ही बना हुआ है, जबकि इजराइल में यह खर्च 4.3 फीसदी है। इसके अलावा साउथ कोरिया अपनी जीडीपी का 4.2 फीसदी, अमेरिका 2.8 फीसदी और चीन 2.1 फीसदी खर्च करता है। यह दर्शाता है कि अब तक भारत का इसको लेकर क्या नजरिया है।

पेटेंट के अलावा अपने देश के लोग ब्रांड एवं ट्रेडमार्क पंजीयन के मामले में भी काफी पीछे हैं। विप्रो के डाटा के मुताबिक, 2019 में पूरी दुनिया से ट्रेडमार्क के लिए 21,807 आवेदन किए गए थे और इसमें भारत की हिस्सेदारी मात्र 0.7 फीसदी है। भारत से इंडस्ट्रियल डिजाइन के आवेदन लगभग गायब हैं और इसके आंकड़े के अनुसार भारत से डिजाइन के ट्रेडमार्क के लिए तीन आवेदन किए गए हैं। ट्रेडमार्क बहुत ही साधारण सा प्रयास है जो आपके व्यापार पर किए गए मेहनत को सरंक्षित रखती है, बहुत से भारतीयों को यह मालूम ही नहीं है कि कई लोग व्यापार में घाटा होने के बाद भी ट्रेडमार्क गैर ब्रांड लोगों ही बेंच कर घाटा कवर कर लेते हैं। ट्रेडमार्क, ब्रांड लोगों एक संपत्ति है जो दिन प्रतिदिन मूल्यवान बनती जाती है। यदि हमें विश्व बाजार में टिकना है तो हमें पेटेंट और ट्रेडमार्क पंजीयन में एक उछाल लानी होगी नहीं तो हम मजदूर होकर मजदूरी पाएंगे और मलाई पेटेंट वाला ले उड़ेगा।

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